भूमिका

ग्राम्य-साहित्य साहित्य का एक बहुत बड़ा अंग है। कोई भी साहित्य जीवित नहीं रह सकता हे जिसका मौलिक सम्बन्ध जन-स धारण से न हो। थोड़े से विद्वानों द्वारा कोई साहित्य अधिक दिन तक प्रफुल्लित, उन्नत _ ओर पल्लवित नहीं रह सकता हूँ। साहित्य के कुछ अंश तो ऐसे है जो राजाओं और धन-सम्पन्न सज्जनों के आश्रय में रचे जाते हैं, कुछ ऐसे जो केवल प्रकांड यंडितों के योग्य होते हें, और कुछ ऐसे जो जन-साधारण के लिए होते हें। तीनों प्रकार के साहित्य का अपना अपना महत्व हैं और सब का अपना अपना मूल्य हे । परन्तु यदि किसी देश अथवा समाज की यथ.रथ भलक कहीं मिलती हे तः तीसरे प्रकार के साहित्य में । यह साहित्य बहुधा मौखिक हुआ करता है । दादियों से सूनी हुई कहानियों, कृषकों की कहावतों, स्क्रियों के गानों में यह साहित्य मिलता है। परन्तु कार इतना परिवतंन- शील हू और जनता की रुचि इतनी शीघ्रता से बदलती रहती हे कि कुछ ही दिनों में यह साहित्य टीका की अपेक्षा करता । इसलिए यह आवश्यक है कि इनका संग्रह यथाशीक्ष पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जाय जिससे इनको मूद्रित अमरत्व प्राप्त हो। राकेश जी कोई सात-आठ वर्ष से मिथिला के भिन्न-भिन्न गाँवों में जा-जाकर लोकग तों का संग्रह कर रहे हें। जिस लगन से, परिश्रम से, एकाग्रमन से इन्होंने इस महत्व का काम किया है उसकी प्रशंसा जितनी की ज।य, कम हू । प्रस्तुत पुस्तक में उनके संग्रह का थोड़ा ही भाग प्रकाशित हो रहा हे । इसी पुस्तक के आकार के एक ग्रन्थ की सामग्री और तैयार है, और आशा हे छि समय अन् कूल होने पर वह भी प्रक.,शित हो जाथगा | राजस्थान और बुन्देलखंड; ब्रज-मंडल और छत्तं स- गढ़ के लोक गीतों का संग्रह प्रकाशित हो चुका हे अथवा हो रहा है ।
क्या ही अच्छा हो यदि इस प्रकार का काम और भी उपप्रान्तों में किया जाय । यह इतना बड़ा काम हूँ कि साहित्य-संस्थाओं को इस ओर प्रवृत्त होना चाहिए राकेश जी ने अकेले, बिना किसी की [सहायता से, यह काये सम्पन्न किया है और सम्मेलन को इसे प्रकाशित करते हुए बड़ी प्रसन्नता हे। लोकगीतों की विशेषता यह हूँ कि इनमें हृदय के वास्तविक उद्गारह ओर ये सद्यः हृदयग्राही हैं। शिष्टता और सभ्यता का वाह्म प्रभाव जो भी हो, शिक्षा और समाज-द्वारा व्यक्ति विशेष में जो भी परिवतंन हो, कसी के मनुष्यत्व में, मानवता में कोई भेद नहीं होदा हे–कोई चाहे गाँव का रहने वाला हो अथवा नगर का, भोपड़ी में अथवा महल में, मूर्ख हो अथवा पंडित, सन््तान के जन्म के अवसर १२, एक ही प्रकार का आनन्द सब को होता हैं। पिता-माता के देहावसान से सभी को समान शोक होता है। विवाह के समय एक ही प्रकार की खुशी मनाई जाती है । नव-विवाहिता कन्या जब अपने घर जाने रूगती है तब उसके माता-पिता का दुःख बहुत ही करुणा- पूर्ण होता है। किसी प्रियजन के विरह का शोक, दारिद्र्य के कष्ट, यौवन के उमंग, बालकाल की क्रीड़ायें, वृद्धावस्था का असामथ्यं, रोग, इत्यादि सब सभो यूग और समाज की सभी श्रेणी में समान हें। प्रकृति के दृश्य, ऋतुओं की सुन्दरता, वर्षा की कमी, सदा हृदय में भाव को उत्तेजित करने का सामथ्यं रखती हं। इन्हीं विषयों पर लोकगीत हैं। इन साधारण विषयों पर हृदय के यथ थे और सत्य भावों का उदगार इनमें है । जब कोई किसी नदी पर नाव में यात्रा करता है तो उसे कहीं तो गगन-चुम्बी पर्वत देखे पड़ता है; कहीं जल-प्रषात, कहीं घने जंगल, कहीं बड़ी सुहावनी वाटिका, कहीं खेत, कहीं ऊसर भूमि, कहीं झोपड़े, कहीं इमशान–थे सभी प्रकृति के अंश हैं और ये सब मिल कर प्रकृति की सम्पूर्ण और यथार्थ छवि दिखाते हैं। इसी प्रकार मनृष्य के जीवन में उल्लास, खेद, विरह, मिलन, क्रोध, ईर्ष्या, स्नेह इत्यादि सभी भाद्यें का कभी-न कभी अ<भव होता है। इनमें कुछ तो जीवन के मम्म॑ तक पहुँच जाते हें, कुछ केवल क्षणिक प्रभाव उत्पन्न करते हें, कुछ व्यक्तिविशेष तक रह जाते हें, और कुछ का प्रसार बहुत जनों तक होता है । लोकगीत के विषय में, ‘सूहृदसंघ” के वाषिक अधिवेशन में मेने कहा था: इन सरल पंदों में देश की यथार्थ दशा वर्णित है, यहाँ की संस्क्ृति इनमें स रक्षित है । सभ्यता तो वाहच आडैम्बर है, कर तुर्कों की थी, आज अंग्रेजों की हैं। भारतीयता हमार गाँव के रहनेवाक्ों में है, जो शहरों के क्षणभंग्र आभूषणों से अपने स्वाभाविक रूप को छिपा नहीं चुके हें, जिनमें युगों से वेदना सहन करने की शवित है , जो सुख-दु:ख में, हर्ष-विषाद में, जगर्स्रष्टा को भूलत नहीं है, जो वर्षा के आगमन से प्रसन्न होते हैं, जो खेतों में, जाड़े गर्मी में, प्रकृति देवी के निकट, अपना समय बितांते हैं। इन गानों में हम मनृष्य जीवन के प्रत्येक दृश्य को देखते हैं, कन्या के ससुराल चले जाने पर माता के करुण स्वर सुनते हूँ; पुत्र के जन्म पर माता-पिता के आनन्द की ध्वनि पाते हें, खेतों के वह जाने पर हताश किसान के ऋन्दन, व्याह के अवसर पर बधाई के गान, गृहिणी के विरह की व्यथा, सन््तान की असामयिक मृत्यु पर मृक-वेदना—अर्थात् मानविक जीवन की नेसर्गिक कविता का रसास्वादन करते हें।”
मेथिली भाषा और साहित्य बहुत प्राचीन हे। प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार मिथिलाप्रान्त की सीमा यों हें: ‘
गंगाहिमवतोमं ध्ये नदीपंचदशान्तरे ।
तेरभुक्तिरिति ख्यातोदेशः परमपावनः॥॥
कौशिकीं तु समारभ्य गंडकीसधिगम्य वे ।
योजनानि चतुविंश व्यायामः परिकीरतितः ॥
इसको मेथिली में एक कवि ने यों लिखा हे :
गंगा बहथि जनिक दक्षिण दिशि पूर्व कौशिकी धारा।
पद्चचिम बहथि गंडकी, उत्तर हिसवत बल विस्तारा1
कमला त्रियुगा अमुरा धेमुरा बागवती कृतसारा।
सध्य बहथि लक्ष्मणा प्रभुति से मिथिला विद्यागारा॥
आठवीं शताब्दी से अब तक इस प्रान्त की मातृ-भाषा, साहित्य-रचना होती चली आ रही है। प्रारम्भ में तो मेथिली-अपभ्रंश में ग्रन्थ लिखे गये, जिसका एक ज्वलन्त उदाहरण विद्य पति कृत ‘कीत्तिलता है। इसी अपभ्रंश में ‘बौद्धगान तथा दोहा” लिखे गये। विद्यापति ने संस्कृत की अपेक्षा देशी भाषा को अधिक महत्व दिया–वह॒ कहते है :
सकक्कय वाणी बहुअ न भावइ, पाउंअ रस को मम्म न पावइ।
देसिल बअना सब जन मिद्ठा, तें तेसन जम्पओओ अवहद॒टा।॥।
विद्यापति ने कीत्तिकता” में जिस भाषा का प्रयोग किया यह आज की मेथिली के बहुत समीप है। यथा:
वृडन्त राज्य उद्धरि धरेओ। प्रभुशकति दानशक्ति
ज्ञानशक्ति तीनुहु शक्तिक परीक्षा जानलि। रूसलि
विभूत्ि पलटाए आनलि।
तेरहवीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने मैथिली में “वर्णरत्नाकर” नामक सुन्दर ग्रत्थ की रचना की। इसकी लेखनशैली “कादम्बरी” से समता रखती हें–यथा अन्धकार का वर्णन:
पाताल अइसन दुःअवेद्, स्त्रीक चरित्र अइसन दु्लक्ष्य,
कालिन्दीक कललोल अइसन मांसल, काजरक पर्वत अइसन
निविड़, आतंकक नगर अइसन भयानक, कुमंत्र अइसन
निफल, अज्ञान अइसन सम्मोहक, सन अइसस सर्वतोगामी,
अहंकार अइसन उच्चत, परद्रोह अइसन अभव्य, पाप
अइसन मलिन, एवं विध अतिव्यापक दुःसंचर दृष्टिवंधक
भयानक गम्भीर छुचि भेद अन्धकार देख।